राजा भोज भारत के ऐसे प्रसिद्ध राजा हुए। जिनका नाम हर किसी के जिह्वाग्र पर रहता है। लोग बात बात पर राजा भोज की उपमा दिया करते हैं। एक लोकोक्ति "कहा राजा भोज कहाँ गंगू तेली " तो इतना लोकप्रिय है कि अक्सर लोग इसका प्रयोग करते देखे जाते हैं।
राजा भोज धार नगरी के राजा थे। उनके राज्य में कला साहित्य और संगीत को बहुत प्रश्रय मिला। विद्वानों का आदर करना और उनको सम्मानित करना राजा भोज को बहुत अच्छा लगता था। उनके राज्य में संस्कृत भाषा का बहुत उत्कर्ष हुआ। आम नागरिक भी शुद्ध संस्कृत बोलता था।
एक बार राजा भोज भ्रमण करने निकले थे। रास्ते में उन्हें एक लकड़ी का बोझ सिर पर रख कर लाते हुए एक लकड़हारा दिखाई दिया। लकड़ी का बोझ ज्यादा देख कर राजा भोज ने लकड़हारे से पूछा। "भारो वाधति"? अर्थात लकड़ी का भार ज्यादा कष्ट तो नहीं पहुँचा रहा ?
लकड़हारे ने जबाव दिया=>
"भारो न वाधते राजन यथा वाधते वाधति" अर्थात हे राजन सिर पर लकड़ी के भार से मुझे इतना कष्ट नहीं हो रहा जितना आपके मुख से वाधते को वाधति सुन कर हुआ है।
राजा भोज संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। उनसे ऐसी छोटी गलती होना तो सम्भव नहीं। वास्तव में राजा भोज अपने राज्य के आम नागरिकों में संस्कृत भाषा के प्रति रूचि देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने जान बूझकर वाधते शब्द को वाधति बोला था।
अपने राज्य के लकड़हारे के मुख से संस्कृत के शुद्ध शब्द धातु प्रयोग सुनकर राजा को बहुत हर्ष हुआ इन्होंने उसे पुरष्कृत किया।
संस्कृत भाषा में कुछ क्रियाओं के धातु आत्मने पद के होते हैं तो कुछ क्रिया के धातु परस्मै पद के।
कुछ धातु उभय पदी भी होते है। अर्थात आत्मने पद और परस्मै पद दोनों प्रयुक्त होता है। यहाँ इस चर्चित संस्कृत वाक्य में आत्मने पद वाधते ही मान्य है।
इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
जिस राज्य की प्रजा शिक्षित होती है उस राज्य का विकास सुनिश्चित हो जाता है
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