कहानी: सच्चाई की कसौटी पर चुनाव आयोग - sachchai ki kasauti par chunaw aayog

किसी समय की बात है, एक राज्य में चुनाव होने वाले थे। उस राज्य का नाम था 'न्यायपुर'। वहाँ दो मुख्य पार्टियाँ थीं: 'जनलोक पार्टी' और 'जनसेवा पार्टी'। चुनाव आयोग, जो पूरे देश में चुनावों की निगरानी करता था, इस बार भी निष्पक्षता से अपना काम करने के लिए तत्पर था।



जनलोक पार्टी के नेता, श्रीमान् विजय, और जनसेवा पार्टी के नेता, श्रीमान् अमन, दोनों अपने-अपने समर्थकों के साथ चुनाव प्रचार में व्यस्त थे। हर दिन नए वादे, नई योजनाएं, और लोगों के मन में उम्मीदें जगाने का प्रयास हो रहा था। चुनाव की तारीख करीब आ रही थी और चुनाव आयोग अपनी तैयारी में जुटा था ताकि चुनाव सही और निष्पक्ष तरीके से हो सकें।

चुनाव हुए, और नतीजे घोषित हुए। न्यायपुर के उत्तरी क्षेत्र में जनलोक पार्टी जीत गई। विजय ने इसे अपनी पार्टी की जीत के रूप में देखा और जनता को धन्यवाद दिया। चुनाव आयोग की सराहना की गई, क्योंकि सब कुछ शांतिपूर्ण और व्यवस्थित ढंग से हुआ था।

वहीं दूसरी ओर, दक्षिणी क्षेत्र में जनसेवा पार्टी ने भारी मतों से जीत हासिल की। यह क्षेत्र जनलोक पार्टी का गढ़ माना जाता था, लेकिन इस बार परिणाम अलग थे। जनलोक पार्टी के नेता विजय और उनके समर्थक यह जीत हजम नहीं कर पाए। 

"यह कैसे हो सकता है? दक्षिण में तो हमारी पकड़ थी!" विजय ने गुस्से में कहा।

उन्होंने मीडिया में बयान दिया, "यह चुनाव आयोग की साजिश है। उन्होंने हमारी पार्टी को जानबूझकर हराया है। निष्पक्ष चुनाव नहीं हुए हैं।"

जबकि, दक्षिणी क्षेत्र में अमन और उनके समर्थक बेहद खुश थे। उन्होंने कहा, "यह तो जनता की जीत है, और चुनाव आयोग ने निष्पक्षता से काम किया है।"

अमन को याद आया कि उत्तरी क्षेत्र में जब उनकी पार्टी हारी थी, तब उन्होंने चुनाव आयोग की आलोचना नहीं की थी। बल्कि, उन्होंने कहा था, "चुनाव में हार-जीत होती रहती है, हमें जनता के फैसले का सम्मान करना चाहिए।" पर जब विजय की पार्टी दक्षिण में हारी, तो उन्होंने अपनी हार का ठीकरा चुनाव आयोग पर फोड़ दिया।

तभी चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बयान दिया, "हमारा काम है निष्पक्षता से चुनाव करवाना। जीत और हार पार्टियों के प्रचार, जनता की भावनाओं और मतदान पर निर्भर करती है। अगर एक ही आयोग उत्तर में किसी पार्टी को जीत दिला सकता है, तो क्या वही आयोग दक्षिण में हार भी दिला सकता है?"

जनता इस बयान से सहमत थी। वे समझ गए कि राजनीति में हार-जीत जनता की मर्जी पर निर्भर है, न कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर। जो नेता हार को स्वीकार नहीं कर सकते, वे अपनी विफलता के लिए बाहरी कारण ढूंढते हैं, जबकि सच्चाई यही है कि जनता के मत से ही नतीजे तय होते हैं।

यह कहानी सिखाती है कि निष्पक्ष संस्थाओं पर सवाल उठाने से पहले खुद की कमियों को पहचानना जरूरी है। चुनाव आयोग अपनी सच्चाई और निष्पक्षता की कसौटी पर हमेशा खरा उतरता है, चाहे कोई इसे माने या नहीं।

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