मिठाई पर मधुमक्खी भी बैठती है और मक्खी भी
"हम इस कहानी में संतो को मधुमक्खी की उपमा दे हैं जो धर्म ग्रन्थ रूपी मिष्ठान से जुड़े हैं , इसी धर्मग्रन्थ से असज्जन सदृश मक्खियाँ भी जुडी हैं "
मधुमक्खी मिठाई से रस लेकर मधु (शहद) बनती है लेकिन मक्खी उस मिठाई को हीं अपवित्र कर जाती है
धर्मग्रंथों के अद्वितीय रूप को समझने के लिए, हम एक रूपी कहानी के माध्यम से संदेश को समझ सकते हैं। इस कहानी में, हम मधुमक्खी और मक्खी को उपमा के रूप में उठाते हैं, जो हमें धर्मग्रंथों के विभिन्न संदेशों को समझने की मार्गदर्शिका प्रदान करते हैं।
मधुमक्खियाँ मिठाई से रस लेकर मधु (शहद) बनाती हैं, लेकिन मक्खी उसी मिठाई को हीं अपवित्र बना देती है। इस मेटाफ़ोर का अर्थ है कि धर्मग्रंथ जो हमें ज्ञान और उत्तम अदर्शों की ओर ले जाते हैं, वे हमें जीवन के सही मार्ग पर ले जाते हैं। उनमें से हम नये ज्ञान का अर्थ निकालते हैं और उसे अपने जीवन में अंमल में लाते हैं।
यह विचार हमें सच्चाई की ओर ले जाता है, जबकि दूसरी ओर, अज्ञानी लोग, जैसे कि स्वामी प्रसाद मौर्य, धार्मिक ग्रंथों को सही से समझने के बजाय, उनमें संशय और भ्रांतियों की जड़ें खोजते हैं। उनके संशय उन्हें अपने धार्मिक मूल्यों को खोने की दिशा में ले जाते हैं, जिससे उनका नाश होता है।
इस प्रकार, मधुमक्खी और मक्खी, दोनों ही हमारे धार्मिक ग्रंथों की अद्वितीय प्रतिनिधिता हैं, जो हमें सच्चाई और अज्ञान के बीच अंतर समझाती हैं। इस कहानी के माध्यम से, हमें यह याद दिलाया जाता है कि हमें धार्मिक ग्रंथों को सही रूप से समझना चाहिए और उनके उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाना चाहिए।
सार
सद्ग्रंथों को संतजन पढ़कर उससे नवनीत रूपी ज्ञान निकालकर भक्तों में बाँट देते हैं। इसके विपरीत, स्वामी प्रसाद मौर्य आदि मक्खी सदृश अज्ञानी जिस धार्मिक पुस्तक को छू लेते हैं, उसमें उनके हजारों संशय दिखते हैं और इनके संशय पथ पर चलने वाले इनके अनुयायी भी अपना नाश कर लेते हैं।
अब यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि मधुर मिष्ठान और हमारे सांस्कृतिक धर्म ग्रन्थ दोनों का कोई कसूर नहीं है, कसूर हमारा है कि हमने मिठाई पर मक्खी बैठने दी। सद्ग्रंथों को विधर्मियों जैसे स्वामी प्रसादों के हाथ लगने दिए।
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