भारत की भाषाई परंपरा में हिंदी और उर्दू दोनों का गहरा योगदान है। लेकिन कुछ साहित्यिक शीर्षकों और वाक्यांशों को देखकर यह सवाल उठता है—क्या पवित्र और अपवित्र शब्दों का मेल केवल साहित्यिक प्रयोग था, या इसके पीछे कोई गहरी मंशा छिपी थी?
हिंदी के पवित्र शब्द और उर्दू के अपवित्र शब्द
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हवस और गुनाह जैसे शब्द उर्दू से आए हैं। ये शब्द नकारात्मक और अपवित्र भावनाओं को व्यक्त करते हैं।
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पुजारी और देवता संस्कृत/हिंदी के शब्द हैं। ये भक्ति, आस्था और पवित्रता का प्रतीक हैं।
जब इन्हें मिलाकर “हवस का पुजारी” और “गुनाहों का देवता” जैसे शीर्षक बनाए गए, तो पवित्र शब्दों की गरिमा अपवित्र संदर्भों से जुड़ गई। यही बात कई लोगों को संदेहास्पद लगती है।
अगर केवल उर्दू शब्दों का प्रयोग होता तो?
यदि साहित्यकार चाहते तो वे इन शीर्षकों को पूरी तरह उर्दू में भी लिख सकते थे। उदाहरण देखें—
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पुजारी (हिंदी) की जगह – इबादतगुज़ार या बंदा
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देवता (हिंदी) की जगह – ख़ुदा या माबूद
इस तरह,
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हवस का पुजारी → हवस का इबादतगुज़ार
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गुनाहों का देवता → गुनाहों का ख़ुदा
लेकिन ऐसा नहीं किया गया। क्यों? यही सवाल लोगों को सोचने पर मजबूर करता है।
क्या यह एक साज़िश थी?
कई लोगों का मानना है कि पवित्र संस्कृतनिष्ठ शब्दों को जानबूझकर अपवित्र उर्दू शब्दों से जोड़कर भारतीय संस्कृति के देवता और पुजारी जैसे प्रतीकों की छवि कमजोर करने की कोशिश की गई।
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साहित्य और मीडिया का असर गहरा होता है।
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जब “देवता” और “पुजारी” को गुनाह और हवस के साथ देखा जाता है, तो धीरे-धीरे समाज में उनकी छवि भी प्रभावित होती है।
भाषा की ज़िम्मेदारी
भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति और विश्वासों का वाहक है।
शब्दों के मेल से साहित्य की ताकत बढ़ती है, लेकिन यदि इस मेल से पवित्र प्रतीक अपवित्र धारणाओं से जुड़ जाएँ तो यह सांस्कृतिक हानि का कारण बन सकता है।
निष्कर्ष
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हवस का पुजारी और गुनाहों का देवता जैसे शीर्षक प्रभावशाली ज़रूर हैं, लेकिन यह सवाल छोड़ते हैं कि क्या इन्हें किसी सांस्कृतिक एजेंडे के तहत गढ़ा गया।
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यदि उर्दू शब्दों का ही प्रयोग करना था, तो उनके साथ उर्दू के विकल्प जैसे इबादतगुज़ार और माबूद का इस्तेमाल करना अधिक उपयुक्त होता।
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साहित्यकारों और समाज को यह समझना होगा कि शब्द केवल ध्वनियाँ नहीं, बल्कि हमारी आस्था और संस्कृति के प्रतीक हैं।
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