जाति नहीं, कर्म से बनती है पहचान – रैदास जी से सीखें स्वाभिमान का पाठ

आज के दौर में कई लोग सामाजिक प्रतिष्ठा और गौरव पाने के लिए काल्पनिक वंशावली गढ़ लेते हैं। कोई स्वयं को ‘यदुवंशी’ कहने लगता है, तो कोई किसी महान वंश का दावा करता है — लेकिन सवाल उठता है, क्यों?

क्या इसलिए कि उन्हें लगता है कि उनका वर्तमान वंश या सामाजिक पहचान सम्मान के लायक नहीं है?



यह सोच ही समाज के लिए घातक है।


👉 ना तो कोई बनिया ब्राह्मण बन रहा है, ना कोई क्षत्रिय बन रहा है, और ना ही किसी दुबे जी का चौबे बनने का प्रमाण मिला है।
तो फिर दूसरे वर्ग के लोग काल्पनिक 'ब्राह्मण' या 'राजवंशी' क्यों बनना चाहते हैं?

🌟 पहचान बनती है कर्म से, न कि जाति से।


भक्त शिरोमणि रैदास जी इसका सबसे सशक्त उदाहरण हैं। उन्होंने ब्राह्मण बनने की कोशिश नहीं की, ना ही किसी उच्च वंश की कल्पना की।
उन्होंने अपने भक्ति, समर्पण और कर्म से समाज में वह स्थान प्राप्त किया, जिसे आज तक करोड़ों लोग श्रद्धा से स्मरण करते हैं।

उनकी यही स्वाभिमानी सोच उन्हें और महान बनाती है।

💡 सामाजिक संदेश:


> जाति से बड़ा धर्म है, और धर्म से बड़ा कर्म।
जो अपनी पहचान को नकारकर किसी और की छाया बनते हैं, वे कभी समाज में सच्चा सम्मान नहीं पा सकते।



🙏 आत्मगौरव की आवश्यकता:


हर वर्ग, हर जाति, हर समुदाय में श्रेष्ठता और योगदान की मिसालें हैं।
जरूरत है स्वाभिमान के साथ अपनी पहचान को स्वीकारने की, और उसे बेहतर बनाने की — किसी और का मुखौटा पहनने की नहीं।


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🔗 निष्कर्ष:

अगर आप समाज में प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, तो रैदास जी जैसे बनिए — कर्मयोगी, स्पष्टवक्त और आत्मगौरव से भरे।

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