भारत में अक्सर देखा जाता है कि जब भी कुत्तों को लेकर कोई आंदोलन या प्रोटेस्ट होता है—जैसे स्ट्रे डॉग्स की हत्या का विरोध या पेट लवर्स की मांग—तो उसमें ज़्यादातर हिंदू समाज से जुड़े लोग ही सक्रिय दिखाई देते हैं। सवाल उठता है कि इस्लाम में भी कुत्ता हराम माना गया है और सनातन धर्म में भी कुत्ते को लेकर धार्मिक नियम मौजूद हैं, फिर डॉग लवर्स का विरोध सिर्फ हिंदू समाज से ही क्यों जुड़ा दिखता है?
1. इस्लाम में कुत्ते का स्थान
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इस्लामिक शिक्षाओं में कुत्ते को "नापाक" (Impure) बताया गया है।
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खासकर उसकी लार को अशुद्ध माना जाता है।
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हदीसों में कहा गया है कि अगर कुत्ता किसी बर्तन को चाट ले तो उसे सात बार धोना चाहिए।
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सुरक्षा या शिकार के लिए कुत्ता पालना मान्य है, लेकिन घर के भीतर पालतू जानवर की तरह रखना हतोत्साहित है।
👉 नतीजा यह है कि मुस्लिम समाज में कुत्ते पालना या उनसे गहरा लगाव दिखाना आम तौर पर परंपरा में शामिल ही नहीं है।
2. सनातन धर्म में कुत्ते का स्थान
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सनातन धर्म में दृष्टिकोण मिश्रित है।
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महाभारत में युधिष्ठिर स्वर्ग जाते समय कुत्ते को अपने साथ ले गए थे।
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भगवान भैरव का वाहन भी कुत्ता है।
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दूसरी ओर, कई शास्त्रों में कुत्ते को अशुद्ध माना गया है और धार्मिक कार्यों में उसके प्रवेश को वर्जित बताया गया है।
👉 इस तरह, सनातन परंपरा में कुत्ते के प्रति सम्मान और संदेह—दोनों भाव एक साथ मिलते हैं।
3. डॉग लवर्स का विरोध हिंदू समाज से ही क्यों दिखता है?
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सामाजिक खुलापन – हिंदू समाज में बहस और असहमति को जगह मिलती है। लोग अपने विचार और भावनाएँ खुलकर रख सकते हैं।
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – हिंदू समाज में धार्मिक मुद्दों पर भी असहमति जताना अपेक्षाकृत आसान है।
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मुस्लिम समाज में अनुशासन – वहाँ कुत्ते पालने की परंपरा ही बहुत सीमित है और धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध जाकर आंदोलन करना आसान नहीं।
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शहरी संस्कृति – ज़्यादातर डॉग लवर्स शहरी, मध्यमवर्गीय तबके से आते हैं, जिसमें हिंदू समाज की भागीदारी अधिक है।
4. क्या इसमें आंदोलनजीवियों का हाथ है?
यह भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि इस बहस को हवा देने में तथाकथित आंदोलनजीवियों का हाथ हो।
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ये लोग छोटे-छोटे विषयों को बड़ा बनाकर समाज को भावनात्मक मुद्दों में उलझाए रखते हैं।
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डॉग लवर्स और धर्म को भिड़ाना, मीडिया में उछालना, और इसे “हिंदू बनाम हिंदू” बहस बनाना—इनका एजेंडा हो सकता है।
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इससे हिंदू समाज आपस में ही बहस और टकराव में उलझा रहता है और एकजुट होकर किसी बड़े सामाजिक या राष्ट्रीय मुद्दे पर ध्यान नहीं दे पाता।
5. निष्कर्ष
👉 असल अंतर धार्मिक मान्यताओं से ज़्यादा सामाजिक ढांचे और आंदोलन की राजनीति से जुड़ा है।
👉 हिंदू समाज में विविधता और सहिष्णुता ज़्यादा होने के कारण डॉग लवर्स अपनी आवाज़ खुलकर उठा पाते हैं।
👉 मुस्लिम समाज में यह विषय उठता ही नहीं।
👉 लेकिन इसमें यह भी संभव है कि आंदोलनजीवी जानबूझकर ऐसे मुद्दों को बढ़ावा देते हों, ताकि हिंदू समाज यूनाइटेड न रह पाए और आंतरिक बहसों में ही उलझा रहे।
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