प्राचीन भारत में दीपावली केवल आनंद या प्रदर्शन का पर्व नहीं थी, बल्कि यह वातावरण को पवित्र करने का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक उत्सव हुआ करती थी। उस समय घर-घर में घी के दीपक जलाए जाते थे, जिनसे वातावरण में प्राणवायु (ऑक्सीजन) की वृद्धि होती थी और वायु शुद्ध होती थी।
घर आँगन में सुगंधित पुष्पों से सजावट की जाती थी — मोगरा, केतकी, चंपा, और गेंदे की सुगंध से परिवेश में दैवीय शांति और सौंदर्य व्याप्त हो जाता था। पूजा में प्रयुक्त धूप, गुग्गुल, लोबान, कपूर जैसे द्रव्य वातावरण को शुद्ध और रोगाणु रहित बनाते थे।
परंतु आज का दृश्य इसके विपरीत है।
जहाँ कभी सुगंध और प्रकाश था, वहाँ अब धुआँ और शोर है।
पटाखों की जगह अगर हम उतनी ही राशि से घी, पुष्प और सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग करें —
तो केवल अपना ही नहीं, बल्कि अपने आस-पास का वातावरण भी पवित्र कर सकते हैं।
पटाखे जलाना तमोगुण का प्रतीक है।
खुशी व्यक्त करने के तीन ही मार्ग हैं —
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तमोगुणी व्यक्ति बाहरी प्रदर्शन से हर्ष मनाता है।
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रजोगुणी व्यक्ति भौतिक उपलब्धियों से।
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सतोगुणी व्यक्ति अंतर्मन की शांति और प्रकाश से।
मुझे उस तमोगुणी व्यक्ति से शिकायत नहीं,
जो अज्ञानवश पटाखे जलाता है —
पर मुझे खेद उन रजोगुणी और सतोगुणी लोगों से है
जो सब कुछ जानते हुए भी अनुकरणवश वही गलती दोहराते हैं।
अगली दीपावली, बाहरी शोर नहीं —
अंतर्मन में प्रकाश जलाइए जलाइएगा ।
पटाखे नहीं, दीप जलाइएगा ।
वातावरण के साथ हृदय को पवित्र बनाइएगा। 🕯️
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