रावण का महिमामंडन क्यों?
जब खलनायक को नायक बनाकर दिखाया जाने लगे, तब समझिए—आस्था पर वार किया जा रहा है।
रामायण में भगवान श्रीराम आदर्श पुरुष, धर्म के प्रतीक और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।
वहीं रावण का चरित्र अहंकार, काम, लोभ और अत्याचार का प्रतीक है।
फिर भी आज कुछ लोग रावण को महान पंडित, महाज्ञानी, राष्ट्रभक्त और नैतिकता का रक्षक बताने पर तुले हैं।
यह केवल विचारधारा का भ्रम नहीं — यह सनातन को कमजोर करने की सुनियोजित साजिश है।
सोचिए —
जो पात्र सदियों से “दुराचार का चेतावनी-प्रतीक” माना गया,
उसे अचानक “महानायक” बनाने की कोशिश क्यों?
रावण की महिमा गान का असली उद्देश्य
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राम के प्रति श्रद्धा को कम करना
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नई पीढ़ी को भ्रमित करना
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धर्म मूल्यों को उलटना
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अधर्म को आकर्षक बना देना
जब खलनायक को महिमामंडित किया जाता है, तो
नायकों की छवि स्वाभाविक रूप से कम होने लगती है।
आइए, तथ्यों पर ध्यान दें:
1) क्या रावण महाज्ञानी था? नहीं।
सच्चा ज्ञान शुभ कर्मों की ओर ले जाता है।
जिसका मन अहंकार, वासना और अन्याय से भरा हो — वह कैसा ज्ञानी?
भगवान स्वयं ज्ञानस्वरूप कहे गए हैं।
और रावण ने उन्हीं भगवान श्रीराम से द्वेष और विरोध किया।
द्वेष ज्ञान नहीं, अज्ञान का लक्षण है।
2) क्या उसने अपने कुल की प्रतिष्ठा बढ़ाई? बिल्कुल नहीं।
कुछ लोग कहते हैं कि रावण ने अपने वंश का गौरव बढ़ाया।
सत्य तो यह है कि उसने अपने कुल को कलंकित किया।
हनुमान जी ने चेतावनी देते हुए कहा था —
“ऋषि पुलस्त्य के उज्ज्वल कुल को कलंक मत बनाओ।”
लेकिन रावण ने अहंकार के वशीभूत होकर यह फटकार नहीं मानी।
3) क्या रावण ने सूर्पनखा का बदला लिया था?
यदि रावण सच में अपनी बहन की रक्षा करना चाहता,
तो वह उसे दुराचार और उद्दंडता से रोकता।
सूर्पनखा ने स्वयं
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सीता पर आक्रमण किया,
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और राम से अनैतिक आग्रह किया।
नाक कटने के बाद, उसने सच्चाई छुपाकर रावण को भड़काया।
रावण ने बहन के सम्मान के लिए नहीं,
बल्कि वासना के लोभ में सीता का हरण किया।
4) क्या रावण देशभक्त था?
देशभक्त राजा वह होता है जो प्रजा के लिए अपने निजी हित त्याग दे।
लेकिन रावण ने तो
एक स्त्री के लोभवश पूरे लंका-समाज को विनाश की ओर धकेल दिया।
यह देशभक्ति नहीं — प्रजा द्रोह था।
निष्कर्ष
आज रावण की पूजा,
रावण के मंदिर,
और सोशल मीडिया पर रावण-गौरव अभियान
सिर्फ एक सांस्कृतिक संक्रमण युद्ध का हिस्सा है।
लक्ष्य स्पष्ट है:
लोगों को भगवान से दूर करना, और अधर्म को सामान्य व स्वीकार्य बना देना।
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