लीलावती प्राचीन गणित बीजगणित भारत की ओर से एक उपहार है

लीलावती प्राचीन गणित बीजगणित भारत की ओर से एक उपहार है

 लीलावती बीजगणित भारत की ओर से एक उपहार है। 

आप अपने बच्चों को टेडी बियर देकर खुश हैं, लेकिन जानते हैं कि हजारों साल पहले , 1150 ई.पू. एक पिता ने अपने पुत्री को क्या उपहार दिया था। आईये जानते हैं कौन थे ये महान पिता?

ये महान व्यक्ति  थे भास्कराचार्य जिनके पुत्री का नाम था लीलावती। 

भास्कराचार्य एक ज्योतिषी थे। उन्होंने अपनी पुत्री की कुंडली देखा तो उसमे वैधव्य दोष पाया। वैधव्य दोष एक ऐसा योग है जो स्त्री के विधवा होने का कारण है। इसकी रोकथाम के लिए उन्होंने मुहूर्त में संशोधन किया, जिसके बाद शुभ मुहूर्त में उनका विवाह तय किया गया। 


उस समय, समय देखने के लिए पानी की घड़ी का प्रयोग किया जाता था। आज की रेत घड़ी की तरह जल घड़ी भी इसी प्रकार की थी।


जल घड़ी से जल का प्रवाह अवरोध हो गया और शुभ मुहूर्त बीत गया। दुर्भाग्यवश लीलावती का विवाह अशुभ मुहूर्त (वैधृति योग ) में हो गया। लीलावती को स्वावलम्बी बनाने के लिए उन्होंने उसे गणित विद्या का शिक्षा देना आरम्भ कर दिया। 
 

भास्कराचार्य जी ने लीलावती को जो कुछ भी सिखाया वो एक काव्य का रूप ले लिया। इन सब के संग्रह से 1 पुस्तक का निर्माण किया गया। लीलावती एक दक्ष गणितज्ञ बनी  और उसी के नाम पर उस पुस्तक का नाम लीलावती रखा गया। 

आधुनिक बीजगणित लीलावती के सिद्धांतो प्रभावित है 



यह किताब पढ़ने में गणित की किताब नहीं बल्कि कविता की किताब लगती है। जिसमें गीतात्मक छंद हैं।

उदाहरण के लिए:
भास्कराचार्य ने अपनी बेटी से पूछा सवाल 

शुद्ध कमल के समूह के तीसरे, पांचवें और छठे समूह से शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की जाती थी, चतुर्थ तिमाही से पार्वती की पूजा की जाती थी और शेष छह कमल के साथ गुरु के चरणों की पूजा की जाती थी। चलो, बाले लीलावती, मुझे बताओ कि उस कमल के गुच्छे में कितने फूल थे?' उत्तर-120 कमल के फूल।

लीलावती के कुछ और प्रश्न 

प्रश्न १ 

अये बाले लीलावति मतिमति ब्रूहि सहितान्
द्विपञ्चद्वात्रिंशत्‍त्रिनवतिशताष्टादश दश।
शतोपेतानेतानयुतवियुतांश्चापि वद मे
यदि व्यक्ते युक्तिव्यवकलनमार्गेऽसि कुशला ॥ (लीलावती, परिकर्माष्टक, १३)
(अये बाले लीलावति ! यदि तुम जोड़ और घटाने की क्रिया में दक्ष हो गयी हो तो (यदि व्यक्ते युक्तिव्यवकलनमार्गेऽसि कुशला) (इनका) योगफल (सहितान् ) बताओ- द्वि पञ्च द्वात्रिंशत् (32), त्रिनवतिशत् (193), अष्टादश (18), दश (10) -- इनमें १०० जोड़ते हुए (शतोपेतन), १० हजार से (अयुतात् ) इनको घटा दें (वियुताम्) तो। )

प्रश्न २ 

पार्थः कर्णवधाय मार्गणगणं क्रुद्धो रणे सन्दधे
तस्यार्धेन निवार्य तच्छरगणं मूलैश्चतुभिर्हयान् |
शल्यं षड्भिरथेषुभिस्त्रिभिरपि च्छत्रं ध्वजं कार्मुकम्
चिच्छेदास्य शिरः शरेण कति ते यानर्जुनः सन्दधे ॥ ७६ ॥ (भागमूलोन-दृष्ट श्लोक-४)

अर्थ:- पृथा के पुत्र (अर्जुन) ने क्रोध से भरकर रण में कर्ण को मारने के लिए कुछ बाणों का समूह लिया। उसमें से आधे बाणों से कर्ण के बाणों को काट डाला और उस बाणगण के चतुर्गुणित मूल से उसके घोड़ों को मार डाला और ६ बाणों से उसके सारथी शल्य को यमराज का अतिथि बनाया। फिर तीन ३ बाणों से छत्र, ध्वजा और धनुष को तोड़ डाला। पीछे एक बाण से कर्ण का शिर काट डाला। तो कहो उस रण में अर्जुन ने कुल कितने बाण लिये थे? ॥४॥


सन्दर्भ =>https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A5%80

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ