राष्ट्रपुत्र नाथूराम गोडसे बनाम तथाकथित राष्ट्रपिता गांधी – सत्य और विवाद

जैसा अन्न वैसा मन – गोडसे और गांधी के जीवन से एक दार्शनिक विमर्श

प्रस्तावना

भारतीय संस्कृति में कहा गया है –
“जैसा अन्न वैसा मन, जैसा मन वैसा व्यवहार।”
अर्थात् आहार केवल शरीर को पोषण नहीं देता, बल्कि विचार और आचरण को भी आकार देता है। गीता और उपनिषदों में भोजन को तीन गुणों – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक – में बाँटा गया है। सात्त्विक भोजन से शांति, स्थिरता और संयम उत्पन्न होते हैं; जबकि मांसाहार या तामसिक आहार मन में अशांति, उत्तेजना और हिंसा को जन्म देता है। इसी दृष्टिकोण से यदि हम गांधी और गोडसे के जीवन का विश्लेषण करें, तो रोचक अंतर्दृष्टियाँ प्राप्त होती हैं।




नाथूराम गोडसे – सात्त्विकता और अहिंसा के अनुयायी

राष्ट्रपुत्र नाथूराम गोडसे चिटपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे और जीवनभर शुद्ध शाकाहारी रहे।

  • उन्होंने मांस, अंडा, शराब या किसी भी तामसिक पदार्थ को कभी ग्रहण नहीं किया।

  • उनका जीवन अनुशासित, संयमी और सात्त्विक आहार पर आधारित था।

  • व्यक्तिगत जीवन में वे अहिंसक थे, यहाँ तक कि उनके जीवनकाल में गांधी की हत्या को छोड़कर किसी भी हिंसक गतिविधि का उल्लेख नहीं मिलता।

उनके विचार में गांधी की नीतियाँ हिंदू समाज के लिए हानिकारक थीं, और उन्होंने गीता के सिद्धांत – “धर्म हिंसा तथैव च” – का हवाला देकर अपने कार्य को धर्म-सम्मत ठहराया। इस दृष्टि से गोडसे का कृत्य व्यक्तिगत हिंसा नहीं, बल्कि “राजनीतिक हिंसा” था, जिसे वे धर्म की रक्षा मानते थे।


मोहनदास करमचंद गांधी – प्रयोगशील लेकिन विवादस्पद

गांधीजी जन्म से वैष्णव बनिया परिवार से थे, जहाँ शाकाहार परंपरा थी। किंतु युवावस्था में इंग्लैंड में उन्होंने मांस और अंडे का सेवन किया, जिसका उल्लेख उनकी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में मिलता है।

  • बाद में वे शाकाहारी तो बन गए, परंतु उन्होंने “निर्जीव अंडे” को शाकाहार की श्रेणी में रखने का प्रयास किया।

  • गांधीजी का आहार अत्यधिक प्रयोगशील रहा – कभी केवल फलाहार, कभी बकरी का दूध, कभी उपवास।

  • उनके “ब्रह्मचर्य प्रयोग” और आहार संबंधी विचार समय-समय पर आलोचना और विवाद का विषय बने।

दार्शनिक दृष्टि से यहाँ विरोधाभास दिखाई देता है। एक ओर गांधीजी अहिंसा को विश्व के सामने मानवता का महान आदर्श बनाकर प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी ओर उनका आहार-विहार पारंपरिक शुद्ध सात्त्विकता से विचलित नज़र आता है।


अन्न और मन का संबंध

  • राष्ट्रपुत्र गोडसे का आहार सात्त्विक था, जिससे उनका व्यक्तिगत जीवन अनुशासित और संयमी बना।

  • गांधीजी का आहार-विहार बार-बार प्रयोग और संशोधन से गुजरा, जिससे उनका जीवन अक्सर विवादस्पद और विरोधाभासी दिखा।

  • भारतीय दृष्टि से देखा जाए तो मांसाहारी व्यक्ति पूर्णतः अहिंसक नहीं हो सकता, क्योंकि आहार सीधे मन और संस्कार को प्रभावित करता है।


निष्कर्ष

इस निबंध से यह स्पष्ट होता है कि –

  • राष्ट्रपुत्र गोडसे व्यक्तिगत जीवन में अहिंसक और सात्त्विक थे, परंतु उन्होंने राजनीतिक और वैचारिक कारणों से राष्ट्र की रक्षा के लिए हिंसा का सहारा लिया।

  • गांधीजी ने अहिंसा को विश्वव्यापी दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया, परंतु उनके आहार और जीवन प्रयोगों ने उनकी छवि को कई बार विवादस्पद बनाया।(उनके अंहिंसा के छलावा ने सहस्रों का खून बहाया )

अतः “जैसा अन्न वैसा मन” केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और राजनीतिक स्तर पर भी सत्य सिद्ध होता है। भोजन से मन और मन से कर्म निर्मित होते हैं, और वही इतिहास में व्यक्ति की छाप छोड़ जाते हैं।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ