मुख्य न्यायाधीश गवई और वकील की जूता प्रकरण पर एक विचार

परिचय

भारत में न्यायपालिका को सबसे सम्मानित संस्थानों में गिना जाता है। न्यायाधीश की कुर्सी न केवल एक पद है, बल्कि यह न्याय, मर्यादा और निष्पक्षता का प्रतीक भी मानी जाती है। किंतु जब इस कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के शब्द या आचरण उस मर्यादा को ठेस पहुँचाते हैं, तो समाज में असंतोष स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है। हाल में मुख्य न्यायाधीश गवई से जुड़ी एक ऐसी ही घटना सामने आई, जिसने पूरे देश में चर्चा का विषय बना दिया।




घटना का सार

सूत्रों के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश गवई ने ऐसा अमर्यादित बयान दिया जिससे एक वकील आहत हो गए। परिणामस्वरूप, उस वकील ने न्यायालय में गवई की ओर जूता फेंक दिया। निश्चित रूप से, यह कृत्य किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि न्यायालय के भीतर अनुशासन और सम्मान सर्वोपरि होते हैं।

लेकिन साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि न्यायाधीश की कुर्सी की गरिमा बनाए रखना स्वयं न्यायाधीश की भी जिम्मेदारी होती है। अगर उस पद से जुड़े व्यक्ति ही मर्यादा का पालन न करें, तो उसके परिणाम कभी-कभी ऐसे अप्रत्याशित रूप में सामने आते हैं।


इतिहास क्या याद रखेगा

भविष्य में यह घटना इतिहास में इस रूप में दर्ज होगी कि “एक वकील ने न्यायाधीश की कुर्सी की ओर जूता फेंका।”
पर कोई यह याद नहीं रखेगा कि “एक सनातनी हिंदू ने एक विधर्मी, रामद्रोही न्यायाधीश पर जूता फेंका था।”
इतिहास व्यक्तियों की पहचान नहीं, बल्कि घटनाओं के प्रतीकात्मक रूप को याद रखता है।


अगर विरोध करना ही था...

अगर वकील साहब को विरोध दर्ज कराना ही था, तो उन्हें यह कदम तब उठाना चाहिए था जब न्यायाधीश अपने पदासीन आसन पर न बैठे हों — जब वे एक साधारण व्यक्ति के रूप में हों। तब यह घटना अवज्ञा नहीं, बल्कि एक विचारशील विरोध का प्रतीक बनती। लेकिन न्याय की कुर्सी के सामने ऐसा आचरण केवल मर्यादा भंग करने वाला बन गया।


निष्कर्ष

न्यायपालिका की मर्यादा जनता के विश्वास पर टिकी है। न्यायाधीश और वकील — दोनों इस व्यवस्था के दो स्तंभ हैं। जब इनमें से कोई भी अपनी मर्यादा खोता है, तो उसका असर पूरे तंत्र पर पड़ता है। यह घटना एक सीख है कि विरोध का भी एक संस्कारित तरीका होना चाहिए, और साथ ही पद की गरिमा निभाना हर पदधारी का धर्म है।


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