शिवाजी महाराज का न्याय और शासन
क्षत्रपति शिवाजी महाराज का शाशन भारत के बड़े भूभाग पर फैला हुआ था। उनके राज्य में सभी जाति और समुदाय के लोग सुखपूर्वक रहते थे। हर व्यक्ति को न्याय मिलता था और कोई भी व्यक्ति अपने धर्म, जाति या पद के कारण भेदभाव का शिकार नहीं होता था।
शिवाजी महाराज की न्याय व्यवस्था इतनी सशक्त थी कि प्रजा को न तो अत्याचार का भय था और न ही अन्याय का। शासन पूरी तरह लोककल्याणकारी था। अगर आज़ादी के समय भारत में शिवाजी महाराज की कानून व्यवस्था पूरे देश में लागू हो जाती, तो सभी लोग उसे सहर्ष स्वीकार करते। आज की तरह संघर्ष और विरोध की स्थितियाँ उत्पन्न नहीं होतीं।
पूरे भारत में न्याय व्यवस्था का प्रभाव
पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक — सभी लोग एक समान रूप से उनकी न्याय व्यवस्था को स्वीकार करते। जन प्रतिनिधि चुनने की बात भी उस समय की व्यवस्था में शामिल थी। लिच्छवि गणराज्य की तरह, प्रजा अपने प्रतिनिधियों का चयन प्रजातांत्रिक रूप से करती थी। इस प्रकार जनता स्वयं शासन की भागीदार बनती थी।
न्याय और शासन — दो स्तम्भ जो आवश्यक हैं
मेरे विचार से न्याय व्यवस्था और शासन व्यवस्था — ये दो ही स्तम्भ सबसे महत्वपूर्ण हैं। यदि ये दोनों सही रूप से स्थापित हो जाएँ, तो बाकी सब कुछ अपने आप सरल हो जाता है।
आज जो लोग भगवान की शपथ लेकर न्यायाधीश बनते हैं, वही कभी-कभी अदालतों में आचरण द्वारा भगवान का अपमान करते हैं। परिणामस्वरूप न्याय का मंदिर तमाशा बनकर रह जाता है। यदि शिवाजी महाराज जैसी व्यवस्था आज लागू होती, तो पद की गरिमा बनी रहती। कोई भी व्यक्ति उपहास या अपमानजनक आचरण से न्यायपालिका की मर्यादा को ठेस नहीं पहुँचा पाता।
निष्कर्ष
शिवाजी महाराज की न्याय और शासन व्यवस्था हमें यह सिखाती है कि जब शासन ईमानदारी, न्याय और धर्म के आधार पर चलता है, तब समाज में अनुशासन, सम्मान और स्थायित्व अपने आप स्थापित हो जाते हैं।
0 टिप्पणियाँ