शास्त्र के अनुसार व्यापार में न्यायसंगत लाभ कितना होना चाहिए? — ईमानदार मूल्य-निर्धारण की नीति

 

📜 प्रस्तावना

आज के युग में हम देखते हैं कि 1 रुपये की वस्तु भी कभी-कभी 1000 रुपये में बिक जाती है।
ऐसे में प्रश्न उठता है — क्या यह शास्त्रसम्मत है?
क्या व्यापारी को लाभ लेने की कोई सीमा या नीति बताई गई है?
आइए, इसे धर्म, न्याय और व्यवहार — तीनों दृष्टियों से समझते हैं।


🔹 1. शास्त्र का मूल सिद्धांत

शास्त्र किसी निश्चित प्रतिशत का उल्लेख नहीं करता, परंतु वह यह स्पष्ट कहता है कि:

“व्यापार का उद्देश्य केवल धन-संग्रह नहीं, लोक-कल्याण भी है।”

धर्मशास्त्रों के अनुसार:

  • अत्यधिक लाभ लेना,

  • आवश्यक वस्तु का कृत्रिम अभाव बनाना,

  • या जनता की मजबूरी का शोषण करना — यह सब अधर्म है।

ईमानदारी, अहिंसा, और न्याय — यही व्यापारी धर्म है।


🔹 2. किन परिस्थितियों में मूल्य वृद्धि उचित है?

निम्नलिखित स्थितियों में वस्तु का मूल्य बढ़ाना न्यायसंगत माना गया है:

  1. लागत बढ़ने पर — जैसे कच्चा माल, मजदूरी, परिवहन या कर में वृद्धि।

  2. मूल्य-वर्धन (Value Addition) — उत्पाद में सुधार, नई सेवा, या गुणवत्ता वृद्धि।

  3. मांग-आपूर्ति में असंतुलन — सीमित स्टॉक या मौसम-जन्य स्थिति में सीमित वृद्धि।

  4. जोखिम या निवेश की पूर्ति हेतु — यदि व्यापारी को विशेष जोखिम या भंडारण-व्यय उठाना पड़ता हो।

📖 "न्यायसंगत कारण से मूल्य वृद्धि धर्मसम्मत है; अन्यथा लोभ का रूप ले लेती है।"
नीतिशतक, श्लोक 34 (सारांशार्थ)


🔹 3. कितना लाभ उचित है?

व्यवहारिक रूप से व्यापारी को निम्न लाभ सीमा उचित मानी जाती है:

वस्तु का प्रकारन्यायसंगत लाभ प्रतिशतटिप्पणी
आवश्यक वस्तुएँ (अनाज, दवा)2%–10%सार्वजनिक हित हेतु न्यूनतम लाभ
दैनिक उपभोग की वस्तुएँ5%–20%गुणवत्ता अनुसार परिवर्तन
सामान्य उद्योग/कपड़ा आदि10%–40%सेवा और निवेश के अनुसार
विलासिता या ब्रांडेड वस्तुएँ30%–100%+ब्रांड, डिजाइन, सेवा सम्मिलित

📖 मनुस्मृति (8/403):
“लाभं धर्मेण यः कुर्यात्, स व्यापारी प्रशस्यते।”
जो धर्मपूर्वक लाभ कमाता है, वही प्रशंसनीय व्यापारी है।


🔹 4. 1 रुपये की वस्तु 1000 में बेचना — क्यों अनुचित है?

यदि वस्तु में कोई वास्तविक सुधार, दुर्लभता या विशेष मूल्यवर्धन नहीं हुआ,
तो इतना अधिक मूल्य लेना अन्याय और शोषण कहलाता है।
शास्त्र इसे अधर्मजन्य लोभ कहता है।

“लोभ एव मनुष्याणां कारणं सर्वपापिनाम्।” — महाभारत, उद्योगपर्व


🔹 5. व्यापारी के लिए नैतिक नियम (Check-List)

✅ लागत पर आधारित मूल्य निर्धारण
✅ पारदर्शिता — ग्राहक को उचित कारण बताना
✅ आपातकालीन स्थिति में शोषण से बचना
✅ आवश्यक वस्तुओं पर संयमित लाभ
✅ समाज-हित के लिए योगदान (दान, छूट, सेवा)


🔹 6. सारांश — “न्यायसंगत लाभ ही दीर्घकालिक समृद्धि का मार्ग है”

लाभ कमाना अपराध नहीं है, परंतु

अन्याय से अर्जित लाभ कभी सुख नहीं देता।

शास्त्र कहता है —

“धर्मेण लभते वित्तं, शुचिः स व्यापारी स्मृतः।”
मनुस्मृति 4/170

इसलिए यदि व्यापारी न्यायपूर्वक, ईमानदारी और परोपकार की भावना से मूल्य निर्धारित करे,
तो वही व्यापार धर्म कहलाता है, और वही लाभ सत्कर्मफल बन जाता है।


🔗 संदर्भ (Citations)

  1. मनुस्मृति 8/403, 4/170

  2. नीतिशतक — भर्तृहरि

  3. महाभारत, उद्योगपर्व

  4. अर्थशास्त्र — कौटिल्य

  5. गीता 2.47–50 (निष्काम कर्म और न्यायपूर्ण व्यवहार)

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