भारत का संविधान और धर्मनिरपेक्षता : इतिहास, सच और विवाद

 भारत एक ऐसी धरती है जहाँ सह-अस्तित्व की परंपरा हजारों साल पुरानी है। यहाँ वेदांत के आस्तिक दर्शन भी पनपे और चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन भी सम्मान पाए। बौद्ध, जैन, सिख, सूफी, संत और सनातन—सभी ने अपनी-अपनी राह चुनी और समाज ने उन्हें स्वीकार किया। यही कारण है कि भारत की संस्कृति को अक्सर प्राकृतिक रूप से धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है।



संविधान सभा और धर्मनिरपेक्षता की भावना

जब 1946 से 1949 तक संविधान सभा में बहसें हुईं, तब संविधान निर्माताओं ने सभी धर्मों को समान मानने और धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी।

  • अनुच्छेद 14 – सभी नागरिकों को समानता का अधिकार

  • अनुच्छेद 15 – धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव पर रोक

  • अनुच्छेद 25 से 28 – धर्म की स्वतंत्रता, पूजा-पद्धति और धार्मिक संस्थानों की स्वतन्त्रता

यह सब 26 जनवरी 1950 को लागू हो गया था। यानी भारत का संविधान शुरू से ही व्यवहार में धर्मनिरपेक्ष था, भले ही उस समय प्रस्तावना (Preamble) में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द नहीं लिखा गया था।

1976 का 42वां संशोधन – “धर्मनिरपेक्ष” शब्द का जुड़ना

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि संविधान की प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द बाद में, 1976 में 42वें संशोधन से जोड़ा गया। यह संशोधन इंदिरा गांधी सरकार के समय इमरजेंसी (1975–77) के दौरान हुआ।

42वें संशोधन से प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द जोड़े गए और भारत को औपचारिक रूप से “समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य” कहा गया।

विवाद क्यों पैदा हुआ?

  • आलोचकों का मानना है कि भारत की आत्मा और समाज पहले से ही धर्मनिरपेक्ष था, इसलिए शब्द जोड़ने की ज़रूरत नहीं थी।

  • यह कदम राजनीतिक प्रेरणा से उठाया गया था, जिससे संविधान की मूल भावना की व्याख्या को लेकर विवाद शुरू हो गया।

  • आज भी यह बहस जारी है कि धर्मनिरपेक्षता भारत की संस्कृति में स्वाभाविक है या संविधान के माध्यम से थोपी गई।

भारत की स्वाभाविक धर्मनिरपेक्षता

भारत में नास्तिक और आस्तिक दोनों को जगह मिली है।

  • यहाँ एक व्यक्ति खुद को नास्तिक मान सकता है और फिर भी सनातनी समाज का हिस्सा रह सकता है।

  • समाज ने विविध मान्यताओं को कभी भी बहिष्कृत नहीं किया।

  • यही कारण है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी “चर्च और स्टेट के अलगाव” से बिल्कुल अलग है। यहाँ यह “सबका सम्मान और सबको स्थान” की भावना पर आधारित है।

निष्कर्ष

भारत का संविधान अपनी मूल आत्मा में हमेशा धर्मनिरपेक्ष रहा है। फर्क केवल इतना है कि प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द 1976 में 42वें संशोधन से जोड़ा गया। इस शब्द को जोड़ने से विवाद जरूर पैदा हुए, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत की संस्कृति और समाज प्राचीन काल से ही धर्मनिरपेक्ष रहे हैं।

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